नयारघाटी की कहानियाँ।

बेड़ा, (लघु कथा )

पौड़ी गढ़वाल

गौतम सिंह बिष्ट उत्तराखंड की कलम से l


   पांच बद्री, और पांच प्रयागों के इस प्रदेश उत्तराखंड में अनगिनित नद नाले इन्द्र जाल के से रहष्य बुनते प्रदेश की गंगा जमुनी तहजीब में आपना जल भरते रहते है। इनमे ही कि सदा नीरा नदियों की  संख्या में सुमार है। नयार नदी, प्राचीन नाम नारद गंगा के नाम से जानी जाने वाली नदी उत्तराखंड के दूधातोली भूखण्ड से निकलती है और दो भागों में बंटकर लगभग 92 किलोमीटर के सफर के बाद ऐतिहासिक नगर सतपुली के आगे 2 किलोमीटर दूरी पर माँ कमन्दा के शरणस्थली पर संगम बनाती है।

 पूर्वी और पश्चिमी दिशाओ से आने के कारण, इनका नाम पूर्वी और पश्चिमी नयार पड़ गया। ये पौड़ी जनपद की जीवन रेखा को प्रभावित करती है। हिम नद न होने पर भी ये सदा नीरा नदी है। इनके द्वारा सिंचित घाटी क्षेत्र नयार घाटी रीजन कहलाती है। मेरे बेड़े की खेवनहार भी नयार नदी ही है। ये नयार नदी कुछ आगे बढ़कर ब्यासघाट में गंगा में खुद को समर्पित कर देती है। इसलिये इसकी पवित्रता को भी गंगा नदी से कम नही आंका जाता, इसके तट पर कई बड़े मन्दिर, और समशान घाट है। 

अगर मैं यू कहूँ की पुराना हमारा पूर्वजो का जनमानस इसी नदी की गोद मे सोया है। तो अतिश्योक्ति नही होगी। इसके कर्मकांड के स्थानो को बड़े बड़े पीपल के पेड़ों से चिन्हित किया गया था। दूधातोली से निकलकर ये नयार नदियाँ दो बहिनो की तरह बिछुड़कर फिर जिस संगम पर आकर मिलती सौभग्यवश उसी संगम के तट पर मेरा खुद का पैतृक गाँव वसा हुआ है और हमारी कहानी का बेड़ा भी इसी तट पर बनाया गया है। 

नदी की सभ्यता को शांत रखने के लिये, इनके किनारों पर रोने से यहां सोई हुई आत्माओं के जाग्रत होने अंदेशा बना रहता  है। साथ ही बच्चो को इसके जल प्रकोप से दूर रखने के लिये बहुत सी किंबदंती कथाओं का भी प्रचलन था।  इसके तट पर शमशान साधना और बोक्षड़ी बिद्या के जाप सम्पन्न किये जाने के भी की स्थानीय साक्ष्य मिलते है। 

दादा दादी के मुख से पानी के ऊपर चलने सन्तो की  सिद्धियों के उल्लेख भी मिलते है। इसके तट पर अब सरकार द्वारा भी अनेक श्मशान घाटों का निर्माण हुआ है। इसके घाट से लगे गावो को गड़ी कहा जाता है और जो इसकी सतह उपरले चोटियों के हिस्से को धार नाम से पुकारा जाता है। दो धारो के मिलन के स्थान को जहाँ एक ऊंट की कमर से तिकोना सैडल बन जाता है। उसे खाल नाम से जाना जाता है और ये ही कारण है कि उस स्थान विशेष के नाम के साथ खाल जुड़ जाता है। 

जैसे देवीखाल, वेरिखाल, गुमखाल, दुधारखाल, जयहरीखाल, पौखाल, रिखणीखाल, ऐसे सैकड़ो नाम बनने के पीछे ये ही जाणाधार था। आज रात  भी मूसलाधार बारिश के चलते बरसात की उनफ़्ती  तरंगित तरंगों ने  अपने साथ लाये जड़ी बूटी के झाड़ झंकार को किनारों पर छोड़ नयार नदी गरजती उफनती गङ्गा में समा गई थी। तब सड़क मार्ग से लकड़ियों की ढुलाई का प्राविधान न था, नदियों को ही इसका जरिया बनाया जाता था। नदी के प्रबल बेग के साथ ये लकड़ी मन्थर गति से अपने गन्तव्य हरिद्वार तक आसानी से पहुंच जाती थी। 

इसी सदा नीरा नदी के तट पर बरसात में कई स्थानीय गाँव वालों की लम्बी कतारे लग जाती, जो नदी पार कर सतपुली कस्बे में रोजमर्रा की सामग्रियों के लिये आते थे। बस इसी समय और इन्ही बिषम परिस्थितयों को सम बनाने का प्रयास करते थे।

हमारे गांव के युवा बालक, गड़ी के लोग महान तैराक समझे जाते थे। आज भी लकड़ी बुगान का लगभग 5 वां दिन था, नदी लकड़ी के सिलपरो से आच्छादित थी। उनके बीच से बरसाती नदी का मटमैला जल कहीं कहीं नजर आता था।

इसी नदी के तट पर हमारे पुरखों का लगाया एक ब्रह्द पीपल का वृक्ष था, जिसके आयु के बारे में आंकलन का ठीक ठीक ज्ञान किसी को नही था। जिस बुजर्ग से पूछा उन्होंने बताया जब से हमने होश सम्भाला तब से इसे ऐसे ही देखा। इसकी बड़ी बड़ी शाखाएं सबको अपनी पनाह में लेकर शीतल छाया प्रदान करती।

इस समय अक्सर स्कूलों का भी गरमी का अवकाश चलता, युवाओ के साथ साथ, हम बालको का दल भी आज सुबह नदी तट पर पहुँच चुका था। पता चला सयाने लोगो का बेड़ा आज कई राहगीरों को पार उतार चुका था। अब हम सब बच्चे भी चाहते थे। हमारा भी एक बेड़ा हो लोग बिश्वास के साथ हमारे पास भी आये और पर उतारने का निहोरा करें ।

जैसे श्री राम केवट से करते है। हम भी तो इस बैतरणी के केवट ही तो थे। फिर क्या था, खैर के बन खैरण के बड़े पठार रूपी चट्टान के पीछे हमारा दल भी एकत्रित हो गया, कुछ बच्चे कमर तक के पानी मे जाकर कुछ चौरस से सिलपरो को छांटने लगे। और धकेल कर किनारे की तरफ लाने लगे। कुछ रस्सी की जगह सिरालु की बेल, की रस्सी तलाशने लगे। कुछ बेलो उखाड़ते समय रेत के अंदर से उनके फल भी बाहर आ गए , फिर उस काम मे शामिल बच्चो ने चुप चाप उन्हें वहीं डकार भी दिया।

कुशल कारीगर की खुशामद की गई, सबसे पहले चौरस सिलिपर नीचे लगाए गए। जल के बहाव के साथ साथ नवनिर्मित बेड़ा भी अक्सर अपनी जगह छोड़कर, गंगा सागर की तरफ चलने की जिद्द करने लगता। फिर मिस्त्री द्वारा उसे रोककर रखने के लिये डंडो की आवश्यकता जताई गई। आंगन फागन, श्मशान में मुर्दे जलाने से बचे बॉस के डंडों को इक्कठा किया गया, कपाल क्रिया करने के लिये लम्बे लम्बे बाँस के डंडों का प्रयोग होता था, वो ही लाये गए। पहले तल में चार, उसके ऊपर फिर चार शहतीरो को मिलाकर इस प्रकार चार तक का बेड़ा बनकर तैयार किया गया।

अब उसकी मजबूती के लिये रस्सियों की भी जरूरत थी। पास ही उपरी हवा, डाकिनी शाकिनी की तन्त्र मन्त्र बिद्या के लिये एक मण्डप बना था। यहॉं अक्सर मरघट होने के कारण काला जादू जैसे ,मारण, उच्चाटन, घात, हंकार जैसे अदृश्य शक्तियों के टोटको से की गई पूजा के सामने इधर उधर बिखरे रहते थे। फिर क्या था , एक बैंगनी रंग की साड़ी को लाया गया, जो कि ताजा भूत पुजाइ में रखी गई थी।

अब बच्चो के लिये अगर भगवान नही था, तो फिर भूत की क्या औक़ात थी उनके सामने साड़ी के टुकड़ों को फाड़कर रस्सी से खूब कस कर बेड़ा बांधा गया। चार लम्बे बांस के साथ खेवनहार भी तैनात कर दिए गए।
अब समस्या थी कि इधर तो कोई राहगीर नही आ रहा था। सब बड़े लोगो के बेड़े में बैठकर पार हो रहे थे। तब कारीगर ने सुझाया देखो बेड़ा तो मैने बना दिया, अब जाकर लोगो को अपनी तरफ ध्यान खींचकर अपने बेड़े तक ले आओ।

कोई तो आये पर बच्चो पर कौन भरोसा क्या पता मझधार में डुबो दें। इतना प्रतीक्षा तो सबरी ने भी राम की न कि होगी, अब ये बालप्रतिष्टा का सवाल बन गया था। कुछ बच्चो को पीपल के पेड़ तले नियक्त कर दिया गया, कि वहीं से लोगो को पटाकर अपने बेड़े तक लाया जाए। साथ ही ये भी हिदायत दी गई कि, ये सेवा मुफ्त दी जाएगी। पर ज्यादातर परिवार के नुमाइंदे होते और बुजर्ग दादी लोग कहते कहाँ बच्चो के चक्कर मे पड़े हो। सीधा ब्यासघाट मिलोगे इनके चक्कर मे। फिर ये तरीका भी बिफल मनोरथ हो गया।

अब सब मायूस हो बड़े बेड़े के पास आकर लोगो की आमद देखने लगे। कुछ कुछ तो अपने बेड़े की सवारी को छोड़कर ,बड़े बेड़े पर ही नियुक्ति चाहते थे। पर जैसे सब समय एक सा नही होता, इसी तरह बिल्ली के भाग भी छींका फूटा। एक चक्कर मे बड़े बेड़े लोग अधिक हो गए। इस कारण एक अधेड़ जोड़े को उससे उतरना पड़ा। अब हमारे बेड़े के बाल ऐजेंट सक्रिय हो गए। चचा आप चिन्ता न करें उनसे पहले आपको पार उतार देंगे।

आप हमारे साथ आइए। महिला तो अपने भीरु स्वभाव के कारण उधर ही बैठ गई। पर चचा हमारे साथ बेड़े का निरक्षण करने चल दिये। जब केवट की सी टूटी फूटी नाव नुमा बेड़े को देखा तो , अपनी पत्नी के साथ हमारे बेड़े में आ बैठे, अब तो जैसे केवट की नाम मे माता सीता सहित राघव पधारे हों।


अब असली परीक्षा की घड़ी थी। किनारे से थोड़ी सी मस्कत के बाद हल्की सी चरमराहट के बाद बेड़ा, मटमैले पानी मे तैरने लगा। बच्चो की खुशी का वारापार न था। ये उनकी पहली परीक्षा के साथ साथ पहली सवारी ओर पहला सफर भी था।

स्वनिर्मित बेड़े, पर। इतनी खुशी तो बडे होकर ईयर इंडिया के जहाज में बैठकर भी नही मिली जितनी उस बेड़े के सफर में मिली थी, उस सफलता के आगे सब सुख शून्य से साबित हुये। मंझधार में हिचकोले खाती हमारी किश्ती बाल पन की एक बडी उपलब्धि थी।
सब बच्चे पानी पर सरकते अपने बेड़े को स्थिर और सब जग को चलायमान समझते जैसे बिष्णु माया के चलते जीव भृम वश भव सागर में भटकते हुये, हर कार्य का कर्ता स्वयं को मांन कर अपने अभिमान को पोषित कर अहंकार के बशीभूत हो जाता है।

इसी भृम ने बच्चो को भी मोहित कर दिया, अभी साहिल में चंद कदमो की दूरी रही होगी। कि एक बड़े झटके के साथ बेड़ा एकाएक रुक गया। अब पानी भी अधिक था, क्या कारण हो सकता है। बिचार किया गया। चार बाल गोताखोर मटमैले जल में कूद गए और कारण पानी नीचे कोई लकड़ी का सिलिपर बेड़े में अटक गया था।

अब क्या बेड़े पर दम्पति को छोड़ बाकी सब बेड़े से उतरकर एक साथ जोर लगा कर डंडो के बल पर बेड़े को निकाला और फिर बाधा दूर कर उसे किनारे निकाल लाये। सवार दम्पति हमे कृतार्थ निगाहों से निहार रही थी। महिला ने पूछा तुमको पानी से डर नही लगता। सब एक साथ मुंडी हिलाकर नही के संकेत से जवाब दिया।

उत्तर कर दम्पति ने कुछ देना चाहा पर हमने उतराई नही ली। क्योंकि उनकी अपने पन की कृतार्थ दृष्टि जैसे सबसे कह रही हो। तो सारी बाल मण्डली का बहुत बहुत धन्यवाद, उसके बाद बेड़े को खड़ा कर सब बेल की धन्डी में नहाने लगे। सुबह लौटते लोग कोई नही आते, सब लोग बाजार से शाम को लौटते थे। दोपहर के खाने तक बेड़े को उसी घाट पर रखने का प्लान बना, सब घरों की तरफ लौट गए।


शाम को जब बाल समूह जब उस घाट पर पहुंचा तो वहाँ कुछ भी शेष नही था। नदी साफ अब भी मटमैली होकर बह रही थी। एक्का दुक्का लकड़ी ही कोई ब बची थी।
पता चला कि बन विभाग टीम आई थी सबको बहाकर ले गई। फिर अगले दिन नदी के उफनते बहाव् में सब कुछ खत्म हो गया। अब बारह महीनों के अंतराल के बाद, ये नजारा फिर नयार घाटी में दिखेगा। पर फिर वो मंजर लौट कर फिर नही आया। डाल से टूटे पत्ते की तरह वो सपना फिर इन आँखों ने कभी नही देखा और सब कुछ अतीत में विलीन सा होता गया।

मैंने स्वयं को दुनया के पास सती की फाटाली के बडे पठार पर बैठा पाया। आस पास शाम का धुंधलका फैल चुका था। अब आसपास ट्रक और ट्रक्टरों की आवाज गूंजती महसूस हुई। अब वो दिन लद चुके है। मैंने भी अपनी बाइक के इंजन में चाबी डाल अनमने ढंग से गाड़ी को घर जाने के लिये रोड पर डाल दिया। कुछ देर में मै अपने बेड़े से दूर अपने सतपुली आवास पर था।,,,,,

गौतम सिंह बिष्ट।
उत्तराखंड

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