“अंतिम शिखर के पंख”

एकदा।

अपनी अंतिम विरासती तर्ज से अपनी केंचुली सी निकलता ये बूढ़े अजगर सा, उत्तराखंड के पौड़ी जनपद का न्यारघाटी का एक रमणीक गाँव है। कभी बड़े खोल यानि कुनबों के कारण इसे बड़खोलू के नाम से परिभाषित किया गया था। ये गढ़वाल के बिष्ट जाती के गावों जैसे बुंगा, मलेठी, और बड़खोलू कि श्रंखला में ये कृषि के कारण इस तिकड़ी का रीढ़ समझा जाता था। आज से 50 साल के फ़्लैश बैक में अगर झाँका जाए तो ये अपनी उन्नति की चरम उत्कर्ष पर था। धान , गेंहू। उडद दलहन, तिल, गहथ, मसूर , मक्का। प्याज, मूली, टमाटर,धनिया, और मिर्च जैसे अनेको 12 मासी अनाजो के लिये ये जाना जाता था। बेटपानी, सिलोनी गाँव, महड, टीर, बेदलगाव, स्किनखेत तक उसका अनाज बदले में कुछ सामान देकर खरीदा जाता था।

उस समय जब कोई प्रदेश से गाँव लौटता तो। एक दमाग ( एक बाद्य यंत्र) की आवाज सबको चौककना कर देती। अब तो प्रदेश का पंत प्रधान भी बगल से गुजर जाता है। तो पता ही नही चलता, जैसे अजगर अपने पेट भरने के बाद आलस्य में करवट लेना भी भूल जाता है। वही हाल कुछ राजनीतिक प्रलोभनों से इस लहलहाती धरती का भी हो चुका है। बुजुर्गों की इस विस्तृत विरासत अब अधिकतर कृषि से बन भूमि में तब्दील हो चुकी है। बूढ़े पीपल के चार बड़े वृक्षों में से जो 100 , 200 साल पहले बुर्जगों के सरक्षण से रक्षित किये, गए होंगे। इनमें से भी अब तीन ही बाकी है। वो भी अपनी अंतिम अवस्था मे जी रहे है। गाँव की पूरी पीढ़ी में एक पीपल का वृक्ष संरक्षित किया गया है। जो गाँव के बीच मे लगा है।

इसका श्रेय बड़े भाई गाँव के पोस्टमास्टर श्री विजयपाल भाई जी को जाता है। पुराने बुजर्गो में गाँव मे आते जाते, श्री रामा दा। से मुलाकात होती है। जब हम बचपन मे थे। तब से उनको गाँव के हर सुख दुख में शामिल पाया, किसी को हवा, लगना । कोई बस्तु जैसे गाय भैस गुम जाना, कोई बाहरी अदृश्य ताकत की छाया या अन्य अजनबी दुख दर्द, हर कोई रामा दा के घर की तरफ रुख करता । उनके ज्योतिष पर हर कोई भरोसा करता, और भरोसा का दूसरा नाम ही तो ईश्वर है।


जब कभी उंसके मुलाकात होती है। उंसके बतियाने में पुराने जामने की खट्टी मीठी यादें भी याद आती है। वे अपने परम्परा को बड़े सदाचार से निभाते है। गाँव मे दो एक ताई जी है। जिनके चरण छूने पर मन को शांति सी मिलती है। बाकी सब कुछ आज के कलयुग के भेंट चढ़ गया। इस गाँव को मुख्य सड़क सतपुली से कल्जीखाल की रोड से कच्चे मार्ग से जोड़ा गया है। इस पर एक झूला पुल है जो 2012 कि आपदा से आज तक गत कई सालों से बेबिलोन के बागों की तरह एक अजूबा बना है। लोग आते है इस अजूबे को कैमरे में कैद कर अपनी घर की दीवार पर लगा देते है। सोशल मीडिया में दो चार कॉमेंट्स करके अपना फर्ज निभा जाते है। सरकार को भी इसकी याद चुनाव के समय आती है।

सेना से सेवानिविर्ती के बाद मैंने भी गाँव की खेती पर जोर दिया था। “पर लोग पहले लिख गए” । अकेला चना भाड़ नही, फोड़ता । और ये भाड़ जरूर फूटता । अगर सरकार की फ्री राशन और घुमावदार भाषण दोनों नही मिलते पर 4 साल खेतो से भरपूर फसल के बाद, बहुत सारी परेशानी हैं। जैसे कम खेती के कारण जंगली जानवरों के पेट में पहुँच जाती खेती बाडी। गाँव के पालतू पशु भी बहुत नुकसान करते।

गाँव मे हल बैलों की कमी, एक दो किसान कितना नुकसान बचा सकेंगे। बाकी सब लोग सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान को ही खेती समझने लगे। जिससे अंतिम शिखर के पंख भी अब शिथिल होने लगे है। जैसे सरकारी स्कूलों की पढ़ाई प्राइवेट स्कूल खा गए। उसी तरह सरकारी वोट बैंक तंत्र गाँव की सामूहिक खेती को निगल गया। यदि चककबन्दी खेती होती तो भी कुछ हो सकता है। इन कुछ कमियों के कारण अंतिम शिखर के पंख अब छोटे होते जा रहे है।

गौतम सिंह बिष्ट उत्तराखंड।

भाई भाई की उन्नति पर अब उदास हो जाता है। इस लिये अंतिम शिखर के पंख अब कम होते जा रहे है। गाँव मे अब कर्मठ बहुओं का ,और दमदार सासुओं का अब अभाव हो चला है। गाँव का हर कर्मठ मर्द खेती की तरफ रुख नही करता । तभी तो अंतिम शिखर के पंख अब टूटते जा रहे है। गाँव के अंतिम शिखरों की ऊँचाई घटते देख मैंने भी पोर्टफोलियो को मैदानों की मुद्राओं में ही सीमित रखा। क्योंकि अंतिम शिखर के पंख अब इस सरकारी तंत्र में गाँव की अर्थव्यवस्था से उड़ान नही भर सकते, ये मेरा अनुमान था।

जो आज के हालातों में धरातल पर उतरता सत्य साबित हो रहा है। समय के साथ जब चमत्कार होगा। गाँव के सभी लोग अपने वास्विकता को समझे , सच्चे सुख की परिभाषा समझने लगे। तब फिर इन शिखरों पर सम्पाती के से पंख पुनः स्वस्थ होंगे। तब तक कई जटायु इस निर्दयता के भेंट चढ़ चूकेंगे। वो दिन कब आएगा जब मेरे इस सुंदर गाँव के शिखरों पर पुनः राम दूतों की कृपा से सम्पाती के से स्वस्थ सुंदर पंख उगेंगे। ये शिखर फिर अपने मजबूत पंखों से सारे देश प्रदेश में अपनी पुरानी पहिचान में लौटेगा।

उस दिन का मेरी आंखों को इंतजार रहेगा।


एकदा , इति