पहाड़ों में मेलों का अस्तित्व खतरे में

देवेश आदमी की कलम से l


० आधुनिकता के दौड़ में मेलों से बिरुठ होते कौथगेर।
० पारंपरिक मेलों में प्रतिवर्ष नवाचार की जरूरत।
० मन्दिर समितियों को विचार करना होगा कि बदलता हुआ समाज नया क्या चाहता हैं।
० प्रसासन को चाहिए मेलों में मधपान धूम्रपान पर पूर्णतः प्रतिबंध हो।
० स्थानीय मेलों को स्थानीय नागरिकों की आर्थिकी से जोड़ना जरूरी।


पहाड़ों में मेलों का अस्तित्व बहुत पुराना हैं मगर आज भौतिकता के दौर में मेलों का अस्तित्व खतरे में नजर आरहा हैं। पौराणिक मन्दिरों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ चुका हैं मंदिरों का जीर्णोद्धार करने हेतु मन्दिरों के पास पैसा नही हैं। पहाड़ों के 90% मन्दिर समितियां आर्थिक तंगी झेल रही हैं। जिन की मदद आपसी सहयोग पर टिका हुआ हैं।

पहाड़ों में लगातार जनसंख्या कम होने से भी मेलों की रौनक गायब हैं। जब कि शहरों में पहाड़ी समुदायों द्वारा भव्य मेलों का आयोजन प्रतिवर्ष किया जा रहा हैं जिस के प्रमाण इंद्रापुरम कोथिक, मुम्बई कोथिक, नोयडा कोथिक, दुबई कोथिक, चंडीगढ़ कोथिक,सिरसा कोथिक, लखनऊ कोथिक जैसे भव्य आयोजन हैं। इन मेलों में लाखों का खर्चा आता हैं जिस हेतु राज्य सरकार मदद भी करती हैं।

पहाड़ी मेलों में मधपान बिक्री के कारण बुजुर्ग महिलाओं का मोह भंग हो रहा हैं बची हुई कसर करोना ने पूरी कर दिया हैं। करोना काल में अनेकों मंदिरों के पुजारियों की रोजीरोटी छीन गई कुछ मन्दिर बिरान हो गए। करोना के बाद सामान्य होती मानव जीवनशैली के बावजूद भी मन्दिरों के दिन नही बौड़े।


पहाड़ों में वह सब वस्तु उपलब्ध हो रहे हैं जिन के लिए किसी जमाने में मेले आयोजित होते हैं कालांतर ने मेलों के आयोजन से जहां प्रेम सौहार्द आपसी भाईचारा मेलजोल की सौगात दिया वही पहाड़ी जनमानुष को बाजार भी उपलब्ध कराया। मिलों के अस्तित्व पर खतरा इस लिए भी आया कि पहले मेलों में जो दुकानें सजती थी वह सामान अब हर गांव में बारो महीने उपलब्ध हो रहे हैं जिस ने मेलों का अस्तित्व भी धूमिल हो रहा हैं।

बाजरवाद ने पहाड़ों में सुविधाएं दिए परंतु पारम्परिक सौगात बटोर कर भी ले गए। मेलों में नए धार्मिक अनुष्का सांस्कृतिक आयोजनों से रौनक लौट सकती हैं। लोकसंगीत, सूफी संगीत, सुथी संगीत,बुक स्टॉक, स्थानीय मुद्दों पर चर्चा, स्वरोजगार प्रशिक्षण शिविर जैसे आयोजन करने होंगे जिस में दर्शकों का टोटा भी नही होगा और मेले का आयोजन भी हो जाएगा।

मेलों में खेलकूद के आयोजनों से भी रौनक लौटने की पूरी उम्मीद है परंतु इस के लिए मंदिर समिति को एकजुट एक मुठ होना पड़ेगा। धड़ों में बंटे पण्डे इस विषय ओर यदि ध्यान दें तो आस्था भी जीवित रहेगा और सब की रोटी का जुगाड़ भी हो सकता हैं।


मेले पहाड़ों में आपसी मेलजोल के एक केन्द्र हुआ करती थी जिस में हम अपनों को मिलते थे अनेकों वर्षों महीनों से जिन अपनों से भेंट नही होती थी उन्हें हम मेले में मिल जाते थे जो बाजारू सामान हमें आसानी से उपलब्ध नही होते थे वह हमें मेलों में अच्छे दाम पर मिल जाते थे। उसी को केन्द्र में रख हमें उन चीजों को ग्रामीणों तक उपलब्ध कराना चाहिए जो अभी आसानी से उपलब्ध नही हो रहे हैं जो आम लोगों की पहुच से दूर हैं।

यह पहल मन्दिर समिति कर सकती हैं ऐसे क्रेटिव को खोज कर मेले में लाना होगा जिस से मेला आधुनिक बन सके। जिस से कोथगेरों का रुझान मेले में बना रहे। आज का बदलता समाज दैनिक नवाचार चाहता हैं जिस को हम समझ नही रहे है जिस की आहट भर से मेलों की रौनक धूमिल हो चुकी हैं l

यह आहट हमें आज ही समझना होगा आज ही इस क्षेत्र में काम करना होगा ताकि कल पहाड़ों के मेलों के साथ मन्दिरों का अस्तित्व भी खतरे में न पड़े। मेलों में पहाड़ी उत्त्पादोनक स्टॉल लगे स्थानीय हुनर को महत्व मिले तो नई ऊर्जा का संचार संभव हैं। मेले हमारी संस्कृति को बचाने में अहम भूमिका निभा रही हैं जिन के दुर्लभ होने से हमारी संस्कृति को गहरी चोट पहुच रही हैं।

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