बड़खोलू नरेश।

लघु कथा।


हमारे लिये संघ शरण गच्छामि, पढ़ने की नही करने की बस्तु थीं।
रोज सुबह उनको नदी पार करने के लिये एक दूसरे की जरूरत होती।

नदी का मटमैला जल नदी के हाधिये से बाहर होकर जैसे क्रोधी सर्प सी फुंकार मार रहा था। स्कूली बच्चों का एक दल जैसे उस रौद्ररूप धारी नदी से दो दो हाथ करने को उसकी थाह सी ले रहा था। संयोग से मैं भी उसी दल का हिस्सा था। आज भैसा का पोड ( एक भैंस के आकार का बड़ा पत्थर) लगभग जलमग्न हो चुका था। किनारों पर उछाल मारता जल रह रह कर चेतावनी देता प्रतीत होता था। कभी कभी कोई बहती लकड़ी के सिलिपर पास से बह निकलता। तो तैराकों के मन को भी विचलित कर देता।अंतिम निर्णय हुआ कि पार इसी घाट से किया जाएगा। यूँ गड़ी गाँव बड़खोलू के हर बच्चे बचपन से ही तैरना भी सीख लेते थे। पर उस दिन पानी सांकेतिक खतरों के निशानों से ऊपर होकर बह रहा था।

नौ सदस्यों का पोघड़ अवस्था का दल अपनी लम्बी पंक्ति बनाकर किसी आकाश में उड़ते पंछियों की तिरछी कतार के शक्ल में जल में उतर चुका था। सबसे बड़ा और लंबे कद का तैराक सबसे उपरले सिरे पर रहता। कहते है। वो पानी की धारा को काटते चलता है। कुछ मुझ जैसे छोटे कद के विद्यार्थी बीच मे लगते ताकि पानी सिर के ऊपर आने पर बस्ते को हाथ मे उठा कर चले अगल बगल वाले उसका हाथ थामे चलते। ये रणनीति हम लोग अक्सर अपनाकर इंटर कालेज सतपुली स्कूल में पढ़ने जाते थे। सबने बस्तों को सिर पर बांध दिया था।

उस दिन एक बार मझधार में टोली के पांव जरूर उखड़ गए थे। पर फिर पूरा दल अपनी बहादुरी से उस उफनती नदी से पार पा गया। उस पर जाने पर सबने जल्दी जल्दी कपड़े पहने। बेल की पगडण्डी से होते हुए सड़क पर आ गए। वहां से ओड़ल, भल्ली गाँव के बालक भी शामिल हो गए। कुछ दूर जाजरे के पानी के कुछ आगे सुक्रिव सैण से पहले ही कुछ छात्र जो आगे चले आये थे। रोड के किनारे की दीवार में कुछ खोदते नजर आये।

पास जाकर मालूम हुआ कि, एक कोबरा प्रजाति का सांप बिल में घुसा है। और पूंछ का एक चौथाई हिस्सा बाहर लटक रहा था। एक साहसी बच्चे ने उसकी पूंछ पकड़ ली । सबने मना किया, एक ने ज्ञान झाड़ा भई आगर सांप एक बार बिल में घुस गया फिर बाहर नही निकलता मेरी दादी कहती है। फिर पूंछ खिंचने वाला मुझे पता है। कह कर पूरे जोर से उसे बाहर खिंचने लगा। कुछ हिस्सा जरूर बाहर आया पर फिर सभी के जोर लगाने पर भी वो इंच भर भी नही निकला, उस पर एक सयाने ने सुझाव दिया बेटा तूने उसे छेड़ दिया है। तेरी फोटो उसकी आंख में छप चुकी है। अब तुझको नही छोड़ेगा। पूंछ खिंचने वाला बोला बेटा फोटो तो सबकी आई होगी अकेले की नही। अब इधर से दोपहर को निकलना खतरे से खाली नही।

इतना कष्ट तो समुद्र मन्धन में वासुकी नाग को भी नही हुआ होगा, जितना ये बेचारा इस चंडाल चौकड़ी में फंसकर उठा रहा था। फिर सरपंची फरमान सुनाया गया, किसी तेज धार के पत्थर से उसे दो टुकड़े कर दिया जाए। फिर क्या था, एक क्षण में घटना को अंजाम दे दिया गया।

अब तो स्कूल का समय होने को था, पहली घण्टी बच चुकी थी। सब चंडाल चौकडी स्कूल पहुंची, वाइस प्रिंसिपल साहब कहते लो बड़खोलू के नरेश आ गये। आओ बड़ी मेहरबानी है आपकी। आने में कोई कष्ठ तो नही हुआ। उनकी बानी में व्यंग था। सब चुप चाप प्रार्थना में शामिल हो गये।

इस तरह रोज स्कूल के रास्ते के 5 किलोमीटर का जोखिम भरा सफर तय करके जो बच्चा स्कूल पहुंचेगा। वो वक्त से पहले क्यों परिपक्वता को प्राप्त नही होगा और वे होते भी है। अपने समय के साथ ही हर कार्य साहस , धैर्य, निर्भयता, और निर्णयात्मक बुद्धि को सरलता से इस्तेमाल करने जैसे बड़े हुनर कम अवस्था मे सीख लेते है और सबसे बड़ा एकता का रहस्य तो हमें अपनी न्यार नदी ही सीखा जाती थी।

हमारे लिये संघ शरण गच्छामि, पढ़ने की नही करने की बस्तु थीं।
रोज सुबह उनको नदी पार करने के लिये एक दूसरे की जरूरत होती।


आज के लटकते झूले से बढ़िया तो बिन झूले के हममें प्रेम और एकता थी। अपनत्व था। जो अब नदारत सा लगता है।


गौतम बिष्ट उत्तराखंड की कलम से यादों के झरोखे